आज हिन्दुस्तान अखबार के पहले पन्ने पर दो कॉलम में एक खबर है, “शाह ने कहा, सर्जिकल स्ट्राइक से विपक्ष परेशान”। ऐसा ही एक शीर्षक नवोदय टाइम्स में प्रकाशित खबर का है। इसके मुताबिक, “पाकिस्तान से अगर गोली आई तो यहां से गोला जाएगा”। आज की अन्य खबरों के आलोक में इन दो खबर की चर्चा करता हूं।
वैसे तो ऐसी खबरें छपती रही हैं और देश के पहले ऐसे नेता जिनका कोई विकल्प खुद उन्हें और उनके समर्थकों को नजर नहीं आ रहा है – तमाम कायदे कानूनों और नैतिकता का उल्लंघन कर ऐसी बातें करते रहे हैं। उनके समर्थकों ने इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा कहने वाले चमचों को पीछे छोड़ दिया है। ऐसे में मान लीजिए, उन्हें रोका नहीं जा सकता है तो क्या अखबारों के लिए जरूरी है कि वे जो कहें उसे पहले पन्ने पर जगह दी जाए?
आज मैंने नवोदय टाइम्स का शीर्षक गूगल किया तो पता चला कि उत्तर प्रदेश के मंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने 12 फरवरी 2017 को (जी हां दो साल पहले) यही बात कही थी। इसका वीडियो उपलब्ध है। अमित शाह ने खुद यह डायलॉग केशव प्रसाद से तीन दिन पहले नौ फरवरी 2017 को दिया था। उसका भी वीडियो उपलब्ध है। हो सकता है दो साल पुराने इस मामले की याद खबर छापने वालों को नहीं हो। तो आपको बता दूं, अभी 10 अप्रैल को कासगंज में अमित शाह ने यही बात कही थी। इतना ही नहीं, वे चुनाव में वोट लेने के लिए ऐसी बातें लगातार कर रहे हैं। उनके पास वोट मांगने के लिए कुछ है नहीं वे रोज एक ही भाषण देंगे तो क्या अखबार रोज यही छापेगा? और वे बोलेंगे इसलिए अखबार छाप देगा।
क्या छापने वाले को पता नहीं है कि ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं है। पाकिस्तान से भारत के संबंध जैसे हैं वह सर्विविदत है और उससे युद्ध भी हो चुका उसे पटखनी भी दी जा चुकी है पर पहले कभी चुनाव में इसका उपयोग नहीं किया गया तो अभी भी नहीं करना चाहिए। यह बात नेताओं को नहीं समझ में आ रही है, अखबारों को तो समझना चाहिए। यही नहीं, वो ये सब दावा तब कर रहे हैं जब पाकिस्तानी हमले बढ़ गए हैं, मरने वालों की संख्या बढ़ गई है और यह सब वे खुद किसी आधिकारिक आंकड़े के हवाले से नहीं कह रहे हैं। तब भी पहले पन्ने पर जगह मिल रही है। पुरानी बात है फिर भी। यही नहीं, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने यह भी कहा है कि सर्जिकल स्ट्राइक से विपक्ष के लोग परेशान हैं।
सीतामढ़ी में और छपरा में चुनावी सभा करते हुए अमित शाह ने कहा कि पुलवामा में आंतकवादी हमले के दौरान मारे गये सैनिकों की तेरहवीं पर सेना ने आकाश के रास्ते उनकी सरजमीं पर चल रहे आतंकी संगठन के कुनबे का समूल नाश कर दिया। नाश करना था तो 13 दिन का समय क्यों दिया? क्या किसी सरकारी कार्रवाई का भावनात्मक लाभ उठाना या उठाने की कोशिश करना और उसे उसी अंदाज में पेश करना सही है? हो सकता है यह उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला हो पर अखबार के लिए उनकी उल्टी को परोसना क्यों जरूरी है। अखबार उनसे क्यों नहीं पूछता है कि पुलवामा हमले की कोई जांच क्यों नहीं हुई, क्या उसके लिए भारत में कोई जिम्मेदार ही नहीं है क्या साजिश पाकिस्तान बैठे-बैठे पूरी हो गई होगी?
कश्मीर में दूसरे प्रधानमंत्री की हो रही बात (यह भी वैसे ही है। इसका भी कोई मतलब नहीं है) पर कहा कि कश्मीर भारत के मुकुट का मणि है। मोदी और राष्ट्रभक्त बीजेपी कार्यकर्ताओं के रहते (राष्ट्रभक्त बीजेपी कार्यकर्ता कौन? उदितराज या साध्वी प्रज्ञा या जेल में बंद बलात्कारी विधायक या बल्लेबाज या गायक या अभिनेता जो चुनाव जीतने के लिए पार्टी में शामिल कर लिए गए हैं) कोई भी शक्ति कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकती। फिर भी अमित शाह दावा कर रहे हैं कि 56 इंच के सीना वाले (देश दुनिया ने देख लिया कि सीना 56 ईंच नहीं है तब भी दावा) मोदी की इस कार्रवाई के बाद पाक की सेना जमीन पर टैंक लगाकर इंतजार करती रह गयी। सब कोई जानता है कि कश्मीर 1947 से अलग नहीं हुआ अभी तक नहीं हुआ। किसी ने दावा नहीं किया। तो इनके दावे का क्या मतलब? वह भी तब जब पांच साल सत्ता में रहे कश्मीर के लिए कुछ कर नहीं पाए। पीडीपी के साथ मिलकर सरकार चलाई और अब दावे।
इन दावों को आज इस तथ्य के साथ जोड़कर देखिए कि श्रीलंका के हमलों के लिए केरल में कार्रवाई हो रही है उसके तार यहां से जुड़े होने की बात लग रही है। एक तरफ हम पाकिस्तान में आतंकवादी ठिकाने नष्ट करने का दावा कर रहे हैं। घुस कर मारने जैसी बात कर रहे हैं और दूसरी ओर अपने यहां से आतंकी गतिविधियां चलाए जाने का शक है – सरकार के पास कोई सूचना नहीं थी। यही नहीं, सत्तारूढ़ दल ने आतंकवादी हमले को अंजाम देने की आरोपी को चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया है। यानी एक तरफ सरकार आतंकवाद खत्म करने का दावा कर रही है और दूसरी ओर आतंकवादी वारदातों का पता नहीं लगा पाती है और धर्म विशेष के आतंकियों को सरंक्षण देती है। पर अखबार इसपर सवाल नहीं करते उनके दावों को पहले पन्ने पर जगह देते हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे दावे मतदाताओं को बेवकूफ बनाने के लिए रैली में किए जाएं तो भीड़ जुटाने के लिए उसका मतलब तभी तक रहेगा जब तक ये अखबार में नहीं छपेंगे। ऐसे दावे बार-बार किए जाएं और छपने लगें तो रैली में लोग क्या सुनने आएंगे? एक ही दावा बार-बार किया जाए तो जहां भाषण दिया गया, पहली बार कहा गया तो खबर हो सकती है। पर दिल्ली में क्यों? हिन्दी के अखबारों की इन फूहड़ खबरों के मुकाबले द टेलीग्राफ ने, “अजमेर में राष्ट्रवाद के ‘जज’ से प्रज्ञा पर सवाल” को लीड बनाया है। टेलीग्राफ में अंदर के पन्ने पर अजमेर शरीफ दरगाह में विस्फोट को याद किया गया है। साध्वी प्रज्ञा उसमें भी अभियुक्त थीं। पर हिन्दुस्तान टाइम्स भी भाजपा उम्मीदवार प्रज्ञा सिंह ठाकुर से बातचीत छापकर अपना काम पूरा समझ रहा है जिसमें प्रज्ञा ने दावा किया कि वे अपनी इच्छा से चुनाव लड़ रही हैं क्योंकि उन्हें दिग्विजय सिंह पसंद नहीं हैं।