आज के अखबारों में पहले पन्ने पर मध्यप्रदेश के बल्लामार विधायक आकाश विजयवर्गीय जो भाजपा महासचिव और मशहूर राजनेता कैलाश विजयवर्गीय के सुपुत्र भी हैं, को जमानत मिलने की खबर ढूंढ़ते हुए मैंने पाया कि सुषमा स्वराज ने अपना बंगला खाली कर दिया यह खबर कई अखबारों में पहले पन्ने पर ज्यादा प्रमुखता से है।
संयोग से, नवभारत टाइम्स में मुझे दोनों ही खबरें पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर एक ही कॉलम में ऊपर नीचे मिल गईं। वैसे तो पहले पन्ने के लिए खबरों का चयन पूरी तरह संपादकीय विवेक और स्वतंत्रता का मामला है और इसमें कई बार व्यावहारिक तथा कामकाजी कारणों का भी असर होता है। इसलिए कायदे से इस पर कोई टीका टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए और अगर मेरी तरह कोई कर ही दे तो इसे इन तथ्यों के आलोक में ही पढ़ा, समझा और देखा जाना चाहिए।
मेरा मानना है कि संपादकीय विवेक राजनीति समेत निहायत निजी कारणों से भी प्रभावित होता है और उसे जानने, समझने या समझने की कोशिश करने तथा बताने में कोई हर्ज नहीं है। इस लिहाज से ऐसा कोई कारण नहीं है कि पत्रकार से औकात पूछने वाले भाजपा महासचिव के विधायक सुपत्र को सरकारी काम करने से रोकने के लिए एक अफसर को पीटने के आरोप में 14 दिन के लिए जेल भेजे जाने के बाद दो ही दिन में जमानत मिल जाए तो खबर पहले पन्ने पर छपे ही और पाठकों को यह बताया ही जाए कि जमानत क्यों और कैसे मिली। सब विवेक का मामला है। इसलिए खबर पहले पन्ने पर होना जरूरी नहीं है पर हो तो चर्चा की जा सकती है। यह वैसे ही है कि सरकारी बंगले की हकदार नहीं रहने के बाद सुषमा स्वराज ने अपना बंगला समय पर (या उससे पहले भी) खाली कर दिया तो खबर नहीं है पर हो तो चर्चा की ही जा सकती है और अखबारों ने छाप ही दिया है।
अखबार ने लिखा है और आप जानते हैं कि सुषमा स्वराज ने इस बार लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था, वह अब मंत्री भी नहीं हैं। नियमानुसार पूर्व सांसदों को लोकसभा भंग होने के एक महीने में अपने बंगले खाली करने होते हैं। लेकिन बहुत से नेताओं ने लंबा समय बीतने के बाद भी सरकारी आवास को ही अपना ठिकाना बना रखा है। ऐसे में सुषमा ने बंगला खाली किया, जीत लिया दिल। आप यह भी जानते हैं कि सुषमा ने बहुत पहले एलान कर दिया था वे इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगी। ऐसे में उन्हें पता था कि बंगला खाली करना है औऱ उन्होंने समय पर खाली कर दिया। यह एक सामान्य व्यवहार है पर खबर नहीं है। उन्होंने ट्वीट किया और ट्वीटराती ने तारीफ की तो वह औपचारिकता थी, खबर नहीं। खबर तो यही है कि किन लोगों ने बंगला खाली नहीं किया है। पर वह खबर आपको नहीं मिलेगी। मुझे याद नहीं है कि आजतक किसी अखबार में सूची दिखी हो कि इतने लोगों ने समय निकलने के बावजूद बंगला खाली नहीं किया। किसी एक या दो लोगों के महीनों नहीं खाली करने की खबर जरूर छपती रही है।
नवभारत टाइम्स में बल्लामार विधायक को जमानत मिलने की छोटी सी खबर है। दो लाइन के शीर्षक, बैट से पीटा था, एमएलए को बेल – वाली यह खबर आईएएनएस की है और नई दिल्ली डेटलाइन से छपी है। खबर इस प्रकार है, बीजेपी के इंदौर से विधायक आकाश विजयवर्गीय को अदालत ने जमानत दे दी। विजयवर्गीय का इंदौर में एक नगर निगम अधिकारी को बैट से मारने का वीडियो वायरल हुआ था। ऐसे जैसे वीडियो वायरल होने से ही जेल हुई थी – मारा नहीं था या मारना महत्वपूर्ण नहीं है। नवोदय टाइम्स में आज पहले पन्ने पर आधा विज्ञापन है। इसलिए खबरों का पहला पन्ना दो है। आकाश को जमानत मिलने की खबर दूसरे पहले पन्ने पर है। अखबार ने सुषमा स्वराज के बंगला खाली करने की खबर इन दोनों में से किसी भी पन्ने पर नहीं छापी है। दोनों खबर बहुत सारे अखबारों में नहीं हैं। कुछेक में सुषमा स्वराज की खबर है हो सकता है किसी में आकाश को जमानत मिलने की खबर हो या नहीं भी हो। मुद्दा यह नहीं है। मुद्दा यह है कि उस सरकारी अफसर का क्या हाल है (या होगा) जो पीटा गया, अस्पताल में है। इस पर कोई खबर है कि नहीं और नहीं है तो क्यों?
ड्यूटी पर विधायक द्वारा पीटे गए अधिकारी का हाल बताना क्या अखबारों का काम नहीं है। पीटने वाले विधायक को जमानत मिल जाए तो अधिकारी का क्या हाल है, उसे डर लग रहा है कि नहीं, सुरक्षा मिली कि नहीं – यह सब जानना, पूछना बताना किसका काम है। क्या अखबार अपना काम कर रहे हैं। ये देखना किसका काम है। और संपादकीय विवेक इसकी जरूरत नहीं बताए तो पाठक क्या करे। उसके पास कोई उपाय है। मेरे ख्याल से नहीं। इसलिए आज ऐसी भी कोई खबर मुझे किसी अखबार में पहले पन्ने पर नहीं दिखी। इंडियन एक्सप्रेस ने जरूर इस आशय की एक खबर पहले पन्ने पर छापी है। आज मैं आपको बताता हूं कि आकाश को जमानत कैसे मिली और फिर बताता हूं कि इंडियन एक्सप्रेस ने पीटे जाने वाले अधिकारी से क्या बात की।
आकाश विजयवर्गीय को जमानत मिलने की खबर से पता चलता है कि नेताओं के लिए विशेष अदालत है और यह जमानत भोपाल की उसी अदालत ने दी है। दैनिक भास्कर ने आज इससे संबंधित खबर में लिखा है कि सुनवाई स्पेशल जज सुरेन्द्र सिंह की कोर्ट के समक्ष हुई पर अंग्रेजी दैनिक, हिन्दुस्तान टाइम्स ने पूरा पदनाम लिखा है, एडिशनल सेशन जज सुरेश सिंह – सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामलों के लिए विशेष जज हैं। इससे पता चलता है कि नेताओं के लिए विशेष अदालत है और जमानत इसी अदालत से मिली है। मुझे नहीं पता कि देश में सरकारी अधिकारियों के लिए ऐसी कोई अदालत है कि नहीं। मैं यह तो जानता हूं कि सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती है और आप जानते हैं कि सरकार से अनुमति मतलब राजनीति। ऐसे ही एक मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बोलने वाले एक बर्खास्त आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट जेल में हैं। बर्खास्त कर दिए जाने के बाद आईपीएस एसोसिएशन भी उन्हें अपना सदस्य न माने तो ऐसे अधिकारी राजनीति की चपेट में रहने को मजबूर हैं जबकि नेताओं ने अपने लिए विशेष व्यवस्था कर ली है।
इंदौर वाले मामले में भी अधिकारी पर जबरन घर में घुसने और जबरदस्ती करने जैसे आरोप हैं। प्रदेश में भाजपा के राजनीतिक प्रभाव के मद्देनजर यह बहुत डरावना है कि विधायक को तो जमानत मिल जाए और अधिकारी के खिलाफ मुकदमे की अनुमति भी दे दी जाए। इंडियन एक्सप्रेस की खबर से लगता है कि अधिकारी के खिलाफ मामला दर्ज नहीं हुआ है पर पिटाई मामले में मुख्य गवाह वही हैं और मुख्य रूप को उसी आधार पर भाजपा महासचिव के विधायक पुत्र को सजा होनी या नहीं होनी है। अधिकारी को यह डर रहेगा कि नेताओं के नियंत्रण वाला (अभी उसमें भाजपा का बहुमत है) नगर निगम कब मुकदमे की अनुमति दे देगा। इसलिए इसमें निष्पक्ष जांच कैसे होगी और बल्ला चलाने वाला नेता हमेशा मजबूत रहेगा और यह देश में कानून का शासन स्थापित करने के लिहाज से गलत है और इसमें जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली स्थिति बनती लग रही है। और यह संजीव भट्ट जैसा मामला होता लग रहा है। अखबारों ने आपको संजीव भट्ट की कहानी बताई होती तो इसे भी बताते। संजीव भट्ट राजनीतिक रूप से आकाश विजयवर्गीय की तरह मजबूत नहीं हैं तो आप उनका हाल देख रहे हैं इसमें निगम के अधिकारी का क्या होता है – यह देखने लायक रहेगा।
एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक अधिकारी की स्थिति ठीक है और वे अपनी दूसरी बीमारियों के कारण आराम कर रहे हैं। यह लगभग वैसा ही है जैसा झारखंड में खंभे से बांध कर पीटे गए तबरेज का मामला है। पहले तो पुलिस ने लापरवाही दिखाई और बगैर इलाज कराए जेल भेज दिया। इसमें जेल भेजने का आदेश देने वाले अधिकारी की भी भूमिका होगी। जेल में उचित इलाज नहीं मिलने से युवक ने दम तोड़ दिया तो मौत का कारण हृदय की धड़कन का रुकना बताया गया। मामले की जांच चल रही है पर ऐसी हालत में आम आदमी के मामले साबित कैसे होंगे? और क्या कभी दोषी अधिकारियों और नेताओं के खिलाफ कार्रवाई होगी। सबने तो अपने बचने की व्यवस्था कर रखी है।