बहुत छोटे औऱ साधारण मामलों में बिछ जाने वाले अखबारों से आज अयोध्या पर फैसले पर कुछ खास की उम्मीद नहीं थी। जैसी थी वैसा ही हुआ है। दैनिक जागरण का पहला पेज देखकर समझ में नहीं आ रहा है कि वह खबरों का पन्ना है कि विज्ञापन। असल में ऐसे मौकों पर हिन्दी अखबार हिन्दू अखबार बन जाते हैं और आज भी कई अखबारों ने अयोध्या की खबर को पूरा पहला पन्ना दे दिया है अखबार में खबरों के दो पहले पन्ने हैं। दूसरे में करतारपुर कॉरीडोर के उद्घाटन को भी तो कवर करना था। इस तरह आज के कई हिन्दी अखबारों में इधर अयोध्या उधर करतारपुर कॉरीडोर की खबर है। नवोदय टाइम्स ने भी पहले पन्ने पर एलान कर दिया है, विवाद को विराम, रामलला विराजमान। और दूसरे पहले पन्ने पर लीड है, 72 साल बाद पूरी हुई अरदास।
अखबार ने इस पूरी खबर को पांच हिस्सों में प्रकाशित किया है। इसका एक हिस्सा जो मुझे लगा कि हिन्दी अखबारों में नहीं मिलेगा, आगे हिन्दी में पेश किया है। उसपर आने से पहले आपको बताता चलूं कि ये पांच हिस्से क्या हैं – 1) पांच जजों की पीठ का फैसला आम राय से 2) मुस्लिम बोर्ड ने कहा, अनुचित और अन्यायपूर्ण 3) न्यायमूर्ति गांगुली ने संविधान से पहले के सवाल उठाए , 4) अदालत में कई तरह के आश्चर्य 5) धर्मनिरपेक्षता को कुचलना आसान नहीं है। मैंने तीसरे हिस्से को हिन्दी में पेश कर दिया है। अब बाकी को पढ़ता हूं। तब तक आप यहां दूसरे अखबारों का हाल देखिए।
हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक है, “टेम्पल सेट इन स्टोन”। नवोदय टाइम्स के शीर्षक से कम नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक है, टेम्पल गेट्स साइट, मॉस्क अ प्लॉट (विवादास्पद जगह मंदिर बनेगा, मस्जिद के लिए जगह मिलेगी)। टाइम्स ऑफ इंडिया का भी शीर्षक है, राम मंदिर विद इन साइट (विवादस्पद जगह पर मंदिर। इसका एक और मतलब हो सकता है, राम मंदिर की उम्मीद बनी)। कहने की जरूरत नहीं है कि साइट का मतलब स्थान या जगह ही है पर इस मामले में जगह का मतलब विवादास्पद जगह से ही है और सारा विवाद इसीलिए था। किसी मुश्किल मामले का आसान रास्ता हर कोई निकाल सकता है और विवाद खत्म करना या खत्म करने की कोशिश करना एक बात है पर निषप्क्ष निर्णय करना और फिर उसे निष्पक्षता से अखबारों में प्रस्तुत किया जाना बिल्कुल अलग बात है।
हिन्दी अखबारों का शीर्षक और जाना पहचाना है। मंदिर वहीं बनाएंगे की तर्ज पर नवभारत टाइम्स ने शीर्षक लगाया है, मंदिर वहीं, मस्जिद नई। नभाटा में भी दो पहले पन्ने हैं। अमर उजाला का शीर्षक, असली मालिक राम लला और राम लला विराजमान तथा इसमें राम राज लाल रंग से दिखाना दरअसल खुशी दिखाना ही है। अखबार ने अपने मुख्य शीर्षक के साथ आठ कॉलम का बैनर उपशीर्षक भी लगाया है जो कहता है, जन्म स्थान राम लला को …. मस्जिद के लिए सरकार अलग से देगी 5 एकड़ जमीन। शीर्षक के लिए शब्दों के उपयोग में छूट ली जाती है पर इससे तथ्य नहीं बदलने चाहिए। फैसले के अनुसार जमीन सरकार देगी नहीं, सरकार से देने के लिए कहा गया है। और मैंने अभी तक कहीं यह प्रमुखता से नहीं देखा, पढ़ा सुना कि जमीन केंद्र सरकार देगी या राज्य सरकार। अनुमान यही है कि राज्य सरकार ही देगी। हालांकि यह अलग मुद्दा है।
टेलीग्राफ की खबर का अनुवाद
अयोध्या मामले में फैसले पर न्यायमूर्ति गांगुली ने संविधान से पहले के सवाल उठाए कहा, “संविधान के एक छात्र के रूप में मेरे लिए इसे स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है”। अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ में कोलकाता से मेघदीप भट्टाचार्जी ने यह रिपोर्ट लिखी है, अनुवाद मेरा। सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर जज न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली ने शनिवार को कहा कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उनके मन में संशय पैदा कर दिया है और वे “बेहद परेशान” हैं।
72 साल के न्यायमूर्ति गांगुली ने 2012 में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में फैसला दिया था जिसे उस समय के विपक्ष, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने खूब पसंद किया था। उन्होंने कहा, “अल्पसंख्यकों ने पीढ़ियों से देखा है कि वहां एक मस्जिद थी। इसे गिरा दिया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार उसके ऊपर एक मंदिर बनाया जा रहा है। इससे मेरे मन में एक शंका पैदा हो गई है …. संविधान के एक छात्र के रूप में मेरे लिए इसे स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है”। उन्होंने बताया कि शनिवार के फैसले में कहा गया है कि किसी जगह पर जब नमाज पढ़ी जाती है तो नमाजी के इस विश्वास को चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वहां मस्जिद है।
उन्होंने कहा, “अगर 1856-57 में नहीं तो 1949 से वहां नमाज निश्चित रूप से पढ़ी जा रही थी, इसके सबूत हैं। इसलिए जब हमारा संविधान अस्तित्व में आया तब वहां नमाज पढ़ी जाती थी। एक जगह जहां नमाज पढ़ी जाती है, वह जगह अगर मस्जिद मानी जाती है तो अल्पसंख्यक समुदाय को धर्म की उसकी आजादी की रक्षा करने का अधिकार है। यह एक बुनियादी अधिकार है जिसे संविधान की गांरंटी मिली हुई है।” उन्होंने आगे कहा, “इस स्थिति में आज एक मुसलमान क्या देख रहा है? वहां कई वर्षों से एक मस्जिद थी जिसे गिरा दिया गया। अब अदालत वहां मंदिर बनाने की इजाजत दे रही है और यह इस कथित निष्कर्ष पर है कि वह जगह राम लल्ला की है। क्या सुप्रीम कोर्ट सदियों पहले के भूमि स्वामित्व के मामले तय करेगी? क्या सुप्रीम कोर्ट इसे नजरअंदाज कर सकती है कि वहां लंबे समय तक मस्जिद थी और जब संविधान बना तो मस्जिद वहीं थी?”
न्यायमूर्ति गांगुली ने कहा: “और संविधान तथा उसके प्रावधानों के तहत सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी है कि इसकी रक्षा करे।” सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने आगे कहा, “संविधान से पहले जो था उसे अपनाया जाए यह संविधान की जिम्मेदारी नहीं है। उस समय कोई भारत लोकतांत्रिक गणराज्य नहीं था। उस समय कहां मस्जिद थी, कहां मंदिर था, कहां बुद्ध का स्तूप था, कहां गिरजा घर था …. अगर हम ऐसे फैसले करने बैठें तो कई सारे मंदिर और मस्जिद तथा अन्य संरचनाओं को गिराना पड़ेगा। हम पौराणिक ‘तथ्यों’ में नहीं जा सकते हैं। राम कौन हैं? क्या ऐतिहासिक तौर पर साबित कोई स्थिति है? यह विश्वास और आस्था का मामला है।”
उन्होंने आगे कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने इस बार कहा है कि आस्था के आधार पर आपको कोई प्राथमिकता नहीं मिल सकती है। उनका कहना है कि मस्जिद में,वहां संरचनाएं थीं, पर वह मंदिर नहीं था। और कोई नहीं कह सकता है कि मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई थी। अब एक मस्जिद को गिराकर मंदिर बनाया जा रहा है। 500 साल पहले जमीन का मालिक कौन था, क्या किसी को पता है? हम इतिहास का पुनर्रचना नहीं कर सकते हैं।
अदालत की जिम्मेदारी है कि जो है उसका संरक्षण किया जाए। जो है उसपर अधिकार का संरक्षण किया जाए। इतिहास को फिर से बनाने की जिम्मेदारी अदालत की नहीं है। पांच सदी पहले वहां क्या था उसे जानने की अपेक्षा कोर्ट से नहीं की जा सकती है। अदालत को कहना चाहिए कि वहां मस्जिद थी जो तथ्य है। यह कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है – (बल्कि) एक तथ्य है जिसे हर किसी ने देखा है। इसे गिराया जाना हर किसी ने देखा है। उसे बहाल किया जाना चाहिए। अगर उन्हें मस्जिद पाने का अधिकार नहीं है तो कैसे आप सरकार को निर्देश दे रहे हैं कि मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन दी जाए? क्यों? आप स्वीकार कर रहे हैं कि मस्जिद गिराना ठीक नहीं था।”
हालांकि, दैनिक भास्कर ने छह कॉलम में पीठ के पांच जजों की तस्वीर के साथ इस मामले में पांचों जजों की राय रखी है और इसे शीर्षक दिया है, संविधान पीठ ने कहा – फैसला आस्था नहीं, तथ्यों के आधार पर किया।