रवीश कुमार भारत के एकमात्र पत्रकार नहीं है जिन्हें मैग्सेसे पुरस्कार मिला हो। उनसे पहले अरुण शौरी और पी. साईनाथ को यह सम्मान मिल चुका है। लेकिन तब न तो इतनी चर्चा हुई और न इतना हर्षोल्लास देखने को मिला। आखिर क्यों? इसकी वजह यह है कि रवीश ने ऐसे समय साहस के साथ, हर तरह का जोखिम उठाते हुए पत्रकारिता की मशाल को जलाए रखा जब खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उद्दंड, अहंकारी, आत्ममुग्ध, जनविरोधी, दलाल, और जाहिल पत्रकारों की बाढ़ आ गई है।
तीन साल पहले इन पंक्तियों के लिखते समय मैंने ऐसे पत्रकारों का नाम भी लिया था लेकिन उनकी नस्ल में इजाफा होने के बाद अब उन्हें गिनना भी मुश्किल है। शायद ही टेलीविजन पत्रकारिता के इतिहास में ऐसा अंधायुग पहले कभी आया हो। इन सफेदपोश अपराधियों ने राष्ट्रवाद की ऐसी परिभाषा गढ़ने का अभियान छेड़ रखा है जिसके अंतर्गत हर वह व्यक्ति देश का दुश्मन है जो सांप्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद असहिष्णुता और राजनेताओं की गुंडागर्दी का प्रतिरोध करता है; जो भीड़ के न्याय का विरोधी है और जो तर्कशीलता में यकीन रखता है।
पत्रकार रवीश कुमार को मिला वर्ष 2019 का मैग्सेसे पुरस्कार
आज जब चैनलों में होड़ लगी है कि कौन कितना अश्लील हो सकता है और ऐंकरों में होड़ लगी है कि कौन सत्ता के तलवे कितने सुघड़ तरीके से सहला सकता है, रवीश ने एकदम अलग तरह की पत्रकारिता की मिसाल पेश की। यही वजह है कि इस पुरस्कार की इतनी चर्चा हो रही है। हमने अपने ही देश में नोबेल पुरस्कार तक का कद बौना होते देखा है। आज हम मैग्सेसे पुरस्कार का कद ऊंचा होता देख रहे हैं- अपने ही देश में। रवीश को सम्मानित कर मैग्सेसे ने खुद को सम्मानित किया है।
टेलीविजन ब्रॉडकास्टिंग का इतिहास देखें तो ऐसा ही एक वक्त तब आया था जब 1950 के दशक में अमेरिका में कम्युनिस्ट विरोधी मैकार्थीवादी राष्ट्रोंन्माद की वजह से समूचा देश भयाक्रांत था। विस्कान्सिस राज्य से चुने गए रिपब्लिकन सीनेटर जोसेफ मैकार्थी ने कम्युनिज्म के भूत का हव्वा खड़ा कर हर उस व्यक्ति और संगठन को प्रताड़ित किया जो थोड़ा भी स्वतंत्र विचार रखता था। वह बहुत कठिन समय था क्योंकि मैकार्थी की नीतियां अमेरिकी जनता के एक ऐसे वर्ग को पसंद आ रही थीं जो सभी उदारवादियों को संदेह की दृष्टि से देखता था और राजनीतिक दृष्टि से तटस्थ लोगों पर साम्यवादी उद्देश्यों के प्रति हमदर्द होने का आरोप लगाता था।
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उदारवादियों के लिए यह कठिन समय इसलिए भी था क्योंकि मैकार्थी ने समूचे मीडिया को अपने अनुकूल ढाल लिया था। मैकार्थी जो कहता था, पत्रकारों के लिए वही खबर होती थी— न तो उसकी छानबीन कोई करता था और न उसके विस्तार में जाता था। किसी ने ऐसा करने की जुर्रत की तो पत्रकारों का ही एक दबंग हिस्सा उसे हिकारत की दृष्टि से देखता था। सचमुच पत्रकारिता के लिए वह अत्यंत कठिन दौर था।
ऐसे कठिन दौर में एक पत्रकार ने सच्चाई की मशाल जलाए रखी और वह पत्रकार था एडवर्ड आर. मरो। एडवर्ड मरो ने अपने पत्रकार जीवन की शुरुआत कोलंबिया ब्रॉडकास्टिंग सिस्टम (सीबीएस) में रेडियो के लिए रिपोर्टर के रूप में की थी और युद्ध संवाददाता के रूप में दूसरे विश्व युद्ध की उनकी रपटों ने उन्हें काफी ख्याति दिलाई थी।
1950 के दशक के शुरुआती वर्षों से ही उन्होंने टेलीविजन पत्रकार के अपने कैरियर की शुरुआत की। अपने लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम ‘हीयर इट नाउ’ (अब इसे सुनिए) की तर्ज़ पर ‘सी इट नाउ’ (अब इसे देखिए) कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम के जरिए उन्होंने आम जनता से जुड़े मुद्दों को उठाया और सरकार के झूठे दावों का पर्दाफाश किया। इस कार्यक्रम को भी काफी लोकप्रियता मिली।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम का प्रसारण 9 मार्च 1954 को हुआ जिसने अमेरिका के समूचे राजनीतिक परिदृश्य को झकझोर दिया। 30 मिनट के इस कार्यक्रम का शीर्षक था ‘ए रिपोर्ट ऑन सीनेटर जोसेफ मैकार्थी’। इस प्रोग्राम में उन्होंने मैकार्थी के वक्तव्यों को उद्धृत करते हुए उसके अंतर्विरोधों को उजागर किया था और उन बेशुमार दावों की पोल खोली थी जिस पर वहां के पत्रकारों ने खामोशी की चादर ओढ़ रखी थी।
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इस कार्यक्रम के प्रसारण से मैकार्थी तिलमिला उठा और उसने सीबीएस के मालिकों को चैनल बंद करा देने की धमकी दी। मरो ने मैकार्थी से कहा कि अगर उन्हें लगता है कि रिपोर्ट में कही गयी बातें गलत हैं तो उन्हें पूरा 30 मिनट दिया जाएगा, वे आएं और चैनल के माध्यम से अपनी बात रखें। मैकार्थी ने आने की सहमति दे दी लेकिन अपनी तैयारी के लिए थोड़ा वक्त चाहा।
बहरहाल, तकरीबन एक महीने बाद 6 अप्रैल 1954 को मैकार्थी सीबीएस के चैनल पर आए और उन्होंने कहा कि ‘सामान्य तौर पर अपनी व्यस्तता की वजह से मैं मरो की बातों का जवाब देने के लिए समय नहीं निकालता लेकिन इसलिए आ गया क्योंकि मरो एक प्रतीक है- उन चालाक भेड़ियों के गिरोह का नेता है जो कम्युनिस्टों या देश के गद्दारों का पर्दाफाश करने वाले हर व्यक्ति का गला दबोच लेते हैं।‘
पूरे 30 मिनट के कार्यक्रम में मैकार्थी ने अपने ऊपर लगे किसी भी आरोप का जवाब देने की बजाय सारा समय यह साबित करने में लगाया कि मरो एक कम्युनिस्ट है, रूस की खुफिया एजेंसी के लिए काम करता है, लोगों को कम्युनिस्ट बनाने का प्रशिक्षण देता है और कम्युनिस्ट रुझान वाले अमुक अमुक संगठनों का सदस्य है। मरो ने कार्यक्रम के दौरान मैकार्थी को कहीं टोका नहीं— बस अंत में यही कहा कि हमने उन्हें पूरा समय दिया अपनी बात रखने के लिए लेकिन अपनी बात कहने का अधिकार मैं भी सुरक्षित रखता हूं।
अगले कार्यक्रम में मरो ने बताया कि किस तरह मैकार्थी ने दर्शकों के सामने पूरा झूठ परोसा। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जोसेफ मैकार्थी बहुत कुशल वक्ता था, बहुत डींग हांकता था और किसी भी झूठ को इस तरह प्रस्तुत करने में माहिर था कि वह सच लगे। उसके पतन की एक वजह यह भी थी कि एक समय के बाद जनता उसके झूठ से बुरी तरह ऊब गई और उसे खारिज कर दिया।
2005 में जोसेफ मैकार्थी और एडवर्ड मरो के इस प्रसंग पर आधारित हॉलीवुड की एक फिल्म ‘गुड नाइट ऐंड गुड लक’ रिलीज हुई जिसमें मैकार्थी के वास्तविक फुटेज का इस्तेमाल किया गया था।
रवीश कुमार के संदर्भ में इस प्रसंग का उल्लेख मैंने इसलिए किया क्योंकि टेलीविजन पत्रकारिता के बारे में रवीश और मरो के विचारों में अद्भुत साम्य दिखाई देता है। मरो ने 1958 में शिकागो में ‘रेडियो-टेलीविजन न्यूज डायरेक्टर्स एसोसिएशन’ के सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण भाषण दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘रेडियो और टेलीविजन की खबरों के साथ बुनियादी गड़बड़ी यह है कि इनमें शो- बिजनेस, विज्ञापन और समाचार का अजीब घालमेल है। इन तीनों में से प्रत्येक अपने आप में काफी कुछ अपेक्षा रखते हैं। जब आप तीनों को एक साथ मिला देते हैं तो इससे जो गड़बड़ी पैदा होती है उसका बयान करना मुश्किल है।‘
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मरो ने 1958 में ही भविष्यवाणी की थी कि इस माध्यम पर तेजी से कॉरपोरेट घरानों का नियंत्रण बढ़ता जाएगा और जनहित के मुद्दों को सामने लाने और मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के बीच संतुलन बिगड़ जाएगा। अपने भाषण के अंत में मरो ने कहा— ‘यह उपकरण लोगों को शिक्षित कर सकता है बशर्ते इसको संचालित करने वाले लोग इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संकल्पबद्ध हों। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह तारों और रोशनियों से भरा महज एक डिब्बा है।‘
हमारे देश में गड़बड़ी मात्र इतनी नहीं है कि चैनलों में रीढ़विहीन ऐंकरों और संपादकों की जमात इकट्ठी हो गई है जो रवीश जैसे पत्रकारों से ईर्ष्या तो करती है पर उस जैसा होने का साहस नहीं जुटा पाती। हाल के दिनों में जितनी तेजी से चैनलजीवी फ्रीलांस पत्रकारों की प्रजाति में इजाफा हुआ है, उसने भी उन पत्रकारों की बोलती बंद करा दी है जो कल तक सरकार के फैसलों पर सवाल उठाते थे और ऐंकरों पर एक नैतिक दबाव बनाते थे।
रवीश को मिले इस सम्मान से अगर इस स्थिति के बेहतर होने में थोड़ी भी मदद मिलती है तो इसकी सार्थकता है वरना…