छठवें चरण का चुनाव प्रचार खत्म होने से एक दिन पहले की शाम। कोई साढ़े छह बज रहे होंगे। इलाहाबाद से प्रयागराज हुए शहर के परेड ग्राउंड में प्रधानमंत्री की सभा होनी है। मोदी के भाषण से 10 मिनट पहले तक सभा स्थल पर बमुश्किल 25 हजार के आसपास लोग दिख रहे हैं जबकि इस मैदान की क्षमता एक लाख के करीब है।
पूरे शहर में जोर-शोर से इसका प्रचार किया गया है, लेकिन कहीं कोई उत्साह नहीं दिख रहा। याद आती है साल 2014 में मोदी की आंखों देखी रैली, जो सबसे बड़ी रैलियों में एक मानी गई थी। परेड ग्राउंड में पैर रखने तक की जगह नहीं थी। आज यहां खाली पड़ी कुर्सियां सवाल कर रही हैं कि मोदी नाम का तिलिस्म क्या अब खत्म हो रहा है?
2014 में जो भीड़ मोदी नाम के सहारे खुद चलकर आई थी, आज उसे लाने के लिए बसों का इन्तजाम किया गया है ताकि मैदान भरा दिखे। सभा में आए सोरांव के रामधनी से बात हुई, तो उन्होंने बताया कि उन्हें पैसे देकर लाया गया है। कितने पैसे मिले, इस पर उनका कहना है कि गाड़ी वाले ने अभी 25 रुपए दिये हैं, बाकी देखो कितना देता है।
वर्तमान चुनाव में फूलपुर को अंडररेटेड सीट माना जा रहा है, लेकिन इसकी अहमियत इतनी है कि दोनों ही खेमों की नजर इस सीट पर है और फूलपुर में जीतने का दबाव साफ देखा जा सकता है। इसका एक कारण यह भी है कि इस सीट पर अच्छा प्रदर्शन पूर्वांचल की राजनीति को तय करेगा, जहां आखिरी चरण में चुनाव होने हैं। फूलपुर का हाल जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यहीं से मोदी लहर को रोकने का फ़ॉर्मूला पिछले साल तैयार हुआ था।
2014 की मोदी लहर में भाजपा ने कई ऐसी सीटें जीतीं, जो उसके लिये दुरूह समझी जाती रहीं। इसी लहर में भाजपा ने फूलपुर सीट भी जीती, जो पहले कांग्रेस और फिर समाजवादियों का गढ़ मानी जाती रही है। इस सीट पर प्रत्याशी थे केशव प्रसाद मौर्य, जिसे जीत कर वह अचानक से भाजपा के स्टार बन गये। इसका ईनाम उन्हें उत्तर प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बना कर दिया गया। उनके नेतृत्व वाली भाजपा मोदी लहर पर सवार होकर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में उतरी और 15 साल बाद एक-तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की। इसका श्रेय लेकर मौर्य अचानक से बड़े नेताओं में माने जाने लगे। इससे पहले वे महज एक विधायक थे।
लगातार और जल्दी-जल्दी मिली सफलताओं से केशव का कद लगातार बढ़ता गया। विधानसभा चुनाव के वक़्त चुनाव जीतने के बाद मौर्य मुख्यमंत्री पद की दावेदारी जताने लगे, लेकिन मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ। मौर्य बने उपमुख्यमंत्री। केंद्र से प्रदेश की राजनीति में आने के बाद मौर्य को अपनी सांसदी छोड़नी पड़ी। उनके द्वारा खाली की गई फूलपुर की सीट पर उपचुनाव से बना एक नया सियासी समीकरण, जो आज सपा-बसपा-रालोद महागठबंधन के तौर पर जाना जाता है। इस आम चुनाव में यही गठबंधन बीजेपी की राह का रोड़ा बना हुआ है।
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के गठबंधन की कल्पना करना ऐसा था जैसे केंद्र में कांग्रेस और भाजपा के गठबंधन के बारे में सोचना। इस गठबंधन में हालांकि कई दिक्कतें भी थीं, जिसमें दोनों दलों के नेतृत्व का निजी कारण सबसे बड़ा है, जबकि राजनीति के लिहाज से बहुजन और पिछड़ा का गठबंधन सबसे मुफ़ीद है। इसकी बानगी उत्तर प्रदेश में पहले ही मिल चुकी थी, जब कांशीराम और मुलायम साथ आए थे। 2018 में बनी सपा-बसपा की वैचारिक सहमति 2019 तक आते-आते गठबंधन का आकार ले चुकी है और भाजपा के सामने मजबूती से मुकाबला कर रही है। अब जब चुनाव अपने आखिरी दौर में पहुंच चुका है और स्थिति कुछ साफ होने लगी है। सियासी दल नफा-नुकसान का आकलन करने लगे हैं। नतीजों के बाद जरूरत के लिहाज से समर्थन का जुगाड़ बैठाया जाने लगा है।
इस के बाद हुए लोकसभा उपचुनाव में भाजपा को हार मिली। उपचुनाव के नतीजों से फूलपुर की राजनीति को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। उपचुनाव में सपा के नागेंद्र पटेल को 3,42,922 वोट मिले और भाजपा के कौशलेंद्र पटेल को 2,83,462 वोट। पटेल बनाम पटेल की इस लड़ाई में सपा के नागेन्द्र पटेल को जीत भले ही मिली, लेकिन जीत का अंतर महज 60 हजार वोटों के आसपास था। जीत के बीच अंतर पैदा करने वाला मूल रूप से बसपा का वोट था, जो सहमति के बाद सपा को मिला और मुसलमान वोट अतीक अहमद के खाते में गया। इस चुनाव में बीजेपी की हार दूसरा कारण कम वोटिंग प्रतिशत भी रहा। माना जाता है कि बीजेपी को शहरी वोट ज्यादा मिलता है और शहरी मतदाता ही वोट करने नहीं निकला, जिससे बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा।
मीडियाविजिल जब शहर का जायजा लेने निकला, तो समझ आया कि मोदी नाम की लहर का उफान कब का खत्म हो चुका है और उसकी भरपाई करने वाला यहां कोई नहीं है। दूसरी ओर गठबंधन को शक की निगाहों से देखा जा रहा है कि पता नहीं, कब सत्ता के लोभ में ये लोग पाला बदल लें। हां, भाजपा का राष्ट्रवाद बेशक लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। इसका असर शहर के नवीनीकरण पर आ रही प्रतिक्रियाओं में देखा जा सकता हैं। सिविल लाइंस से कचहरी आने वाले रास्ते पर एक अनाम से चौराहे पर एक मिग-विमान स्थापित किया गया है, जिससे आम लोगों के बीच यह मिग चौराहे के नाम से जाना जाने लगा है। लोगों में खुशी है कि चौराहे का कायाकल्प हो गया।
देवीप्रसाद का मानना है, “सड़कों और फुटपाथ के लिये काटे गये पेड़ या हटाये गये गुमटी वाले शहर के सुंदरीकरण में पहले बाधा बन रहे थे। ज़रूरत पड़ने पर इन्हें हटा देना कोई बुरी बात नहीं है।” इसी ‘ज़रूरत’ का नतीजा है कि शहर के प्रमुख चौराहे लक्ष्मी टॉकीज से लेकर मनमोहन पार्क चौराहे तक एक भी पेड़ अब साबुत नहीं बचा है।
बीजेपी के हिंदुत्व के लिये इलाहाबाद नए ठिकाने के तौर पर उभर कर सामने आया है। इसकी शुरुआत हुई नाम बदलने की मुहिम के साथ। फिर कुम्भ ने इसको नए आयाम दिये। योगी सरकार की नाम बदलने की मुहिम का बुद्धिजीवी तबके ने भले विरोध किया, लेकिन ज़्यादातर इलाहाबादियों में इसको लेकर उलट विचार हैं। अमित का कहना है, “अगर पुराना नाम वापस दिया जा रहा है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है और वैसे भी नाम बदलने से क्या होगा?” धनंजय कहते हैं, “नाम बदलने से शहर की पहचान भी तो बदली है। आप पुराने इलाहाबाद और नये प्रयागराज में फर्क साफ देख सकते हैं।”
किसी अन्य सीट की तरह जातिगत समीकरण फूलपुर में भी उतने ही प्रभावी हैं। फूलपुर संसदीय क्षेत्र में सबसे ज्यादा पटेल हैं, जिनकी संख्या करीब 2 लाख 50 हजार के लगभग है। वहीं यादव मुस्लिम और कायस्थ मतदाताओं की संख्या भी इसी के आसपास है। इसके अलावा यहां लगभग डेढ़ लाख ब्राह्मण और एक लाख के करीब अनुसूचित जाति के मतदाता हैं। सपा-बसपा के गठबंधन का मूल आधार दलित और पिछड़ी जातियां हैं लेकिन बीजेपी ने इसके भीतर सेंधमारी कर अपने लिये समर्थन जुटा लिया है। सपा के यादव वोटर के बरक्स और बसपा के जाटव वोटर के विपरीत पासी, धोबी जैसी जातियों के मतदाताओं को अपने पाले में लाने में बीजेपी सफल हुई है। गठबंधन से हो रहे नुकसान में ये जातियां ढाल बनी हुई हैं। ऐसे में गठबंधन यहां भाजपा को रोकने में सफल होगा, इस पर संशय है।
फूलपुर की लड़ाई को इस बार यादव बनाम पटेल की हो चुकी है। सपा के यादव वोटर में एक बात को लेकर नाराजगी है, जिसको बीजेपी भुना रही है। उत्तरी विधानसभा क्षेत्र के तहत आने वाले कटरा मोहल्ले में चाय की दुकान चलाने वाले दिलीप यादव का कहना है, “जब डिम्पल मायावती के पांव छू सकती हैं, तो मायावती का भतीजा नेता जी के पांव क्यों नहीं छू सकता? गठबंधन सपा अकेले ने थोड़े किया है, बसपा भी उतना ही उत्सुक थी, तो अब निभावें।” वोट के सवाल पर वे कहते हैं कि फूल का जलवा है।
ममफोर्डगंज के गुड्डू का मानना है कि बीजेपी जीत जाएगी, वहीं सपा-बसपा के गठबंधन पर उनका कहना है कि उपचुनाव में दो सीटें जीतने के बाद यह गठबंधन केवल अपने को बचाने के लिये किया गया है। अजय केसरवानी का कहना है, “उपचुनाव की लड़ाई पटेल बनाम पटेल की लड़ाई थी, जिसमें मुस्लिम वोट के सहारे सपा की जीत हुई लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा क्योंकि लड़ाई यादव बनाम पटेल की है। साफ है कि पटेल बीजेपी और यादव गठबंधन के साथ जाएगा और बसपा का वोटर जाटव यहां बहुत कम है। वहीं ब्राह्मण, कायस्थ और वैश्य वोटर अब भी बीजेपी के साथ है।”
फूलपुर वाले कहते नहीं अघाते कि उन्होंने देश को दो प्रधानमंत्री दिए। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पहली बार इसी फूलपुर से निर्वाचित होकर संसद पहुंचे और और लगातार तीन बार यहां से सांसद बने। वहीं वीपी सिंह भी एक बार यहां से चुनाव लड़ कर संसद जा चुके हैं, तो इसके विपरीत गैर-कांग्रेसवाद के जनक राममनोहर लोहिया और बसपा के संस्थापक कांशीराम यहां से चुनाव हार चुके हैं। सपा-बसपा गठबंधन को आधार देने वाला फूलपुर शुरुआत में कांग्रेस और उसके बाद समाजवादियों का गढ़ रहा है। सपा जहां बसपा के साथ मिलकर भाजपा को रोक रही है, वहीं कांग्रेस का कोई नामलेवा भी नहीं है। वर्तमान चुनाव में कांग्रेस का प्रत्याशी कौन है, अधिकांश लोगों को इस बारे में पता तक नहीं है।
अमन कुमार मीडियाविजिल के संवाददाता हैं और आजकल उत्तर प्रदेश के चुनावी हालात का ज़मीनी जायज़ा़ ले रहे हैं