लखनऊ यानी देश के सबसे बड़े सूबे की राजधानी, सूबे की राजनीति का केंद्र। अमेठी अगर कांग्रेस का गढ़ है, तो लखनऊ देश पर राज कर रही बीजेपी का। करीब तीस साल से इस लोकसभा सीट पर बीजेपी का कब्जा है। प्रदेश की दो मुख्य पार्टियां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी लखनऊ को कभी अपने कब्जे में नहीं कर पाईं। इस बार दो स्टार प्रत्याशियों को उतार कर विपक्ष ने पहले से पड़ रही भीषण गर्मी को थोड़ा और बढ़ाने की कोशिश की थी लेकिन प्रचार के आखिरी घंटे तक सियासी माहौल ठंडा ही रहा।
आज खाली दिन है। पिछली शाम प्रचार खत्म हो गया और कल चुनाव है। गठबंधन प्रत्याशी पूनम सिन्हा, कांग्रेस प्रत्याशी आचार्य प्रमोद कृष्णम और भाजपा प्रत्याशी राजनाथ सिंह की किस्मत ईवीएम में चौबीस घंटे बाद कैद हो जाएगी। प्रचार के आखिरी 48 घंटे में मीडियाविजिल ने शहर का जायज़ा लिया और आम लोगों से समझने की कोशिश की कि क्या इस बार तीस साल से चला आ रहा भाजपा का दबदबा टूटेगा या यथास्थिति कायम रहेगी।
पुराने लखनऊ के अमीनाबाद बाज़ार में मुख्य रूप से चिकनकारी और सर्राफा जैसे काम होते हैं। आबादी के लिहाज से देखा जाए तो यहां मुस्लिम ज्यादा हैं, जिनमें शिया और सुन्नी दोनों हैं। शिया और सुन्नी के टकराव को यहां पुराना इतिहास रहा है। दिन चढ़ रहा है और बाज़ार गरमा रहा है। भीतर एक गली में एक दुकान में चिकन के कपड़े की रंगाई का काम हो रहा है, जिसके ऊपर डिजाइन निकाली जाएगी। दोपहर के एक बजे हैं। यासिर अपनी गद्दी पर बैठे हैं और एक नाबालिग लड़के को काम करने का तरीका समझा रहे हैं। लड़का अपना काम करते हुए उनकी बातें सुन रहा है।
हमसे बातचीत में यासिर बताते हैं कि शादियों का सीजन है, तो काम में थोड़ी सी तेजी है, बाकी समय कम ही होता है। “बाजार में आ रहे आम कपड़ों की तुलना में चिकन थोड़ा-सा महंगा होता है और इसको तैयार करने में समय ज्यादा लगता है। जितना समय इसको पूरी तरह से तैयार करने में लगता है, उतने में बड़े-बड़े ब्रांड कपड़ो की वेरायटी बदल देते हैं।” अपने काम की तरह चुनाव को लेकर यासिर खास उत्साहित नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर गठबंधन का प्रत्याशी मजबूत होता तो राजनाथ सिंह को हराकर लखनऊ से बीजेपी का दबदबा खत्म किया जा सकता था।
थोड़ा आगे बढ़ने पर एक चिकन शॉप पर ऋषभ ग्राहकों का इंतजार करते दिखते हैं। वे कहते हैं कि आजकल धंधा मंदा है। चुनाव को लेकर उन्हें कोई भ्रम नहीं, ‘’राजनाथ जी आसानी से जीत जाएंगे क्योंकि गठबंधन और कांग्रेस के प्रत्याशी कमजोर हैं।‘’ उनका कहना है कि कि गठबंधन को अगर लड़ना ही था तो कोई मजबूत प्रत्याशी उतारते। उनके मुताबिक अखिलेश यादव अगर चुनाव लड़ते तो राजनाथ की हार पक्की थी। इस संभावित हार का कारण पूछने पर कहते हैं कि राजनाथ ने शहर के लिये कुछ किया ही नहीं है। ‘’लखनऊ में जो भी काम हुआ है और आज जो लखनऊ आप देख रहे हैं, वो मायावती और अखिलेश की देन है।‘’
पूनम सिन्हा को एक स्टार प्रत्याशी के तौर पर उतारा गया है, लेकिन लखनऊ के मिजाज को देख कर समझ आता है कि यहां स्टारगिरी से ज्यादा नेतागिरी चलती है। पिछले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने यहां से अभिनेता जावेद जाफ़री को उतारा था। उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई थी और उलटे पैर वे मुंबई लौट गए थे। पूनम सिन्हा से पहले जावेद जाफरी के अलावा राजबब्बर और नफ़ीसा बेग जैसे स्टार यहां अपनी किस्मत आजमा चुके हैं, लेकिन सफलता किसी को नहीं मिली। अब अगर पूनम सिन्हा यहां से जीत जाती हैं तो यह किसी बड़े उलटफेर से कम नहीं होगा।
प्रचार के आखिरी दिन तक आते-आते पूरा लखनऊ जातिगत वोट बैंक में बंट गया है। उम्मीदवार वोट बैंक को भरोसे में लेकर अपनी जीत का गणित लगा रहे हैं। शहर की मुख्य आबादी में ब्राह्मण, कायस्थ और मुसलमान हैं, जिनकी आबादी संयुक्त रूप से 13 लाख के करीब है। ऐसे में पूनम सिन्हा का पूरा जोर कायस्थ और मुसलमानों को अपनी तरफ करने का है, लेकिन उनकी दिक्कत ये है कि कायस्थ को आम तौर से बीजेपी का वोटर माना जाता है जबकि मुसलमानों में शिया-सुन्नी का भेद यहां काफी गहरा है, जो कि वोटिंग में साफ़ दिखता है। यहां के पुराने ट्रेंड के अनुसार देखा जाए तो शिया-सुन्नी एक साथ एक प्रत्याशी या पार्टी को वोट नहीं करते और इस बार भी मुमकिन है कि यह भेद बना रहे।
राजनाथ का जोर इस पर है कि कायस्थ वोटों को अपने पक्ष में बनाए रखा जाए और शिया मुसलमानों के वोट को अपने पाले में या फिर प्रमोद कृष्णम की तरफ शिफ्ट कराया जाए, जिससे उनकी राह आसान हो। सपा-बसपा के गठबंधन का मूल आधार जाति है, लेकिन लखनऊ में यह समीकरण उल्टा है। गठबंधन में शामिल किसी पार्टी का आधार वोट इस स्थिति में नहीं है कि वह अपना प्रत्याशी जिता सके।
तमाम समीकरणों के हिसाब से राजनाथ सिंह की जीत आसान मानी जा रही है, लेकिन वोटर के बीच छाई घोर शांति प्रत्याशियों के माथे पर बल लाने के लिये काफी है। शहर में घूमते हुए इसको साफ समझा जा सकता है। राजनाथ सिंह अपनी जीत के लिये हर जतन कर रहे हैं और बीजेपी के तमाम नेता, कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा वोटर बाहर लाने की कोशिश में लगे हुए हैं, ताकि वोट प्रतिशत को घटने से रोका जाए। 2014 के चुनाव में मोदी लहर के बावजूद लखनऊ में 55% वोटिंग हुई थी, जिसमें राजनाथ सिंह को 5 लाख 60 हजार के आसपास वोट मिले थे, वहीं उनकी प्रतिद्वंद्वी रीता बहुगुणा जोशी को 2 लाख 88 हजार वोट मिले थे, यानी जीत का अंतर लगभग पौने तीन लाख वोटों का था। रीता बहुगुणा जोशी अब बीजेपी में हैं और इलाहाबाद सीट से ताल ठोंक रही हैं।
बीजेपी का 2014 में नारा था ‘सबका साथ सबका विकास’, लेकिन 2019 में ये दोनों ही चीजें गायब हैं। विनीत पान्डे का कहना है- ‘’लखनऊ में ट्रैफिक जाम बहुत बड़ी समस्या है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं कर रहा है। वहीं सांसद रहते हुए राजनाथ सिंह अपने द्वारा कराये गये कामों में लखनऊ में बन रही आउटर रिंग रोड, गोमतीनगर रेलवे स्टेशन और लखनऊ-कानपुर एक्सप्रेस-वे को गिना रहे हैं, जबकि हकीकत ये है कि इनमें से कोई भी काम पूरा नहीं हुआ है। ज्यादातर अधबनी अवस्था में हैं और मोदी की ही तरह एक बार और अपने निवर्तमान सांसद के कार्यकाल की मांग कर रहे हैं।‘’
अमन कुमार मीडियाविजिल के संवाददाता हैं और लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश का ज़मीनी जायज़ा ले रहे हैं