इंदौर और भोपाल की वीआइपी सीटों पर कौन करेगा सियासी सुसाइड?

आदित्‍य एस.

स्थानीय चुनावों में जनता को हर मुद्दे की सटीक जानकारी होती है, ऐसे में उनमें उत्साह भी नजर आता है लेकिन आम चुनावों में ऐसा नहीं होता। यानी ज्यादातर वोटर राष्ट्रीय मुद्दों पर बहुत चिंतित नहीं होता। जनता की इस राय की अनुपस्थिति में इन चुनावों में जनता की दिलचस्पी काफी कम हो जाती है। देश के काफी इलाकों में फिलहाल यही माहौल है। इनमें ज्यादातर वे इलाके हैं जहां सत्तारूढ़ भाजपा की सरकार है लेकिन इससे अलग उन राज्यों में माहौल बिल्कुल अलग है जहां हालिया विधानसभा चुनावों में भाजपा को हराकर कांग्रेस ने कब्जा किया है। यहां के सांसदों को भी अब जनता के मूड से खतरा नजर आ रहा है। इनमें एक अहम राज्य है मध्यप्रदेश जहां पिछले चुनावों में कांग्रेस के हाथ केवल दो सीटें आईं थी और भाजपा ने 27 पर कब्जा जमाया था।

मध्यप्रदेश में लोकसभा चुनाव देश भर में चर्चा का विषय बने हुए हैं। इस चर्चा में जिन दो सीटों पर ज्यादा बात हो रही है वे इंदौर और भोपाल हैं। ये दोनों ही शहर प्रदेश की जीवनरेखा हैं। भोपाल से जहां पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का नाम कांग्रेस ने तय कर दिया है, वहीं इंदौर में भाजपा नेतृत्व अब तक अपनी हाइप्रोफाइल सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का विकल्प नहीं खोज पा रहा है। दिग्विजय जहां सोलह साल बाद चुनाव लड़ रहे हैं वहीं सुमित्रा महाजन पिछले तीस साल से इंदौर से आठ बार सांसद रह चुकी हैं।

हमारी लोकतांत्रिक परंपरा में लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद चुनावी राजनीति खत्म हो जाती है। सुमित्रा महाजन के लिए भी कुछ ऐसा ही सोचा जा रहा है। उनकी उम्र भी अब पचहत्तर की हो चुकी है। अब उनके लिए सबसे योग्य पद राष्ट्रपति अथवा उपराष्ट्रपति का ही हो सकता है हालांकि खुद महाजन की चुनावी जिजिविषा अभी खत्म होती नजर नहीं आ रही है। इसे वे कई बार इशारों-इशारों में जता चुकी हैं। महाजन के द्वारा इंदौर की सीट न छोड़े जाने की एक वजह यहां उनकी और भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की अदावत भी है, जिसे इंदौर वाले ताई-भाई का झगड़ा कहते हैं। महाजन के बाद विजयवर्गीय ही सबसे मजबूत दावेदार हैं और शिवराज से कथित अलगाव के बाद वे केंद्रीय नेतृत्व के कहने पर ही काम कर रहे हैं, हालांकि प्रदेश में उनकी सक्रियता कम नहीं कही जा सकती।

बताया जाता है इंदौर की सांसदी कैलाश के हाथ लगे यह महाजन को गवारा नहीं है लेकिन महाजन अपने गुट के किसी नेता को भी इतने वर्षों में खास मजबूत नहीं कर सकी हैं जिसके नाम पर सांसद की दावेदारी जताई जा सके। हाल ही में उनके खेमे से जो एक नाम सामने आया था वह था जिले की हिंदूवादी नेता उषा ठाकुर का। ठाकुर पहली बार विजयवर्गीय के भरोसे ही विधानसभा गई थीं लेकिन हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में कैलाश विजयवर्गीय ने अपने बेटे आकाश के लिए उनसे इंदौर विधानसभा नंबर तीन सीट खाली करवा दी और उन्हें अपनी पुरानी विधानसभा महू भेज दिया। आकाश और उषा दोनों जीत गए लेकिन अब तक ठाकुर और विजयवर्गीय के संबंधों में खटास पड़ चुकी थी। ऐसे में महाजन इंदौर से उषा ठाकुर को लड़ाना चाहती हैं। उन्हें उम्मीद है कि पिछले तीस वर्षों से भाजपा के प्रभाव में रहा यह शहर उषा ठाकुर को पसंद करेगा, वहीं महाजन अपने दम पर अपने मराठी वोट भी ठाकुर को दिलवा सकती हैं।

इंदौर की तुलना भोपाल से की जा रही है। ऐसे में जैसे भोपाल में दिग्विजय सिंह को पार्टी ने मैदान में उतारा है, वैसे ही इंदौर से भी किसी बड़े नेता की उम्मीदवारी की बातें की जा रही हैं। अपने गृहक्षेत्र को छोड़ कर भोपाल से उम्मीदवारी मिलने के बाद दिग्विजय के समर्थक और पार्टी उन्हें एक तरह का क्रूसेडर दिखा रहे हैं। इसका मनोवैज्ञानिक असर नेता और जनता पर नजर आने लगा है। इसके बाद कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की ओर से यहां से ज्योतिरादित्‍य सिंधिया को उतारने की भी मांग उठी। जहां कार्यकर्ताओं के लिए इंदौर से किसी बड़े नेता का आना उनके उत्साह की बूटी नजर आ रहा है, वहीं उन नेताओं को यह राजनीतिक आत्महत्या लग रही है।

दरअसल, वे इंदौर और भोपाल की मजहबी तासीर में फर्क जानते हैं। ऐसे में दिग्विजय के लिए भोपाल की सीट कठिन है, तो किसी दूसरे बड़े कांग्रेसी नेता के लिए इंदौर की सीट लगभग आत्महत्या ही साबित होगी!

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