अभिव्‍यक्ति की आज़ादी के नाम पर किसका झंडा ढो रहा है मीडिया?



नेहा दीक्षित


इस साल 29 जुलाई को मैंने ‘ऑपरेशन बेबीलिफ्ट’ के नाम से आउटलुक पत्रिका में 11,350 शब्‍दों की एक स्‍टोरी लिखी थी जिसे लिखने में मुझे तीन महीने की कड़ी मेहनत लगी थी। उसमें यह उद्घाटन किया गया था कि राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ से सम्‍बद्ध संगठन राष्‍ट्रीय सेविका समिति, सेवा भारती और विद्या भारती कैसे 31 आदिवासी लड़कियों- तीन से 11 साल की उम्र के बीच- को असम के पांच सीमावर्ती जिलों से उठाकर अवैध रूप से पंजाब छोड़ आए थे। असम के सुदूर गांवों से इन लड़कियों को जून 2015 में इनके माता-पिता से यह वादा करते हुए ले जाया गया कि इन्‍हें मुफ्त में पढ़ाया-लिखाया जाएगा, लेकिन उसके बाद इनकी उन्‍हें कोई खबर सुनने को नहीं मिली। विडंबना कहिए कि ये माता-पिता अपनी बच्चियों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ट्विटर पर शुरू किए गए प्रचार अभियान #SelfieWithDaughter का हिस्‍सा नहीं बन सके।

महिला और बाल विकास मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले विभिन्‍न सरकारी संस्‍थानों जैसे बाल कल्‍याण कमेटी, बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए असम का राज्‍य आयोग और चाइल्‍डलाइन इंडिया फाउंडेशन ने आरएसएस के कई संगठनों समेत केंद्र सरकार की एजेंसी राष्‍ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को तमाम चिट्ठियां लिखीं ताकि लड़कियां अपने माता-पिता के पास लौट सकें। इन चिट्ठियों में कई राष्‍ट्रीय व अंतरराष्‍ट्रीय कानूनों का हवाला दिया गया था और आधिकारिक रूप से इस घटना को इन्‍होंने ”बाल तस्‍करी” का नाम दिया था।

एक रिपोर्टर के बतौर मुझे जब इस घटना की पहली जानकारी मिली, तब मैंने एक स्‍वतंत्र पत्रकार के बतौर आउटलुक से संपर्क किया। घटना की गहन पड़ताल के बाद मुझे यह स्‍टोरी करने की मंजूरी मिली और मैंने इसकी रिपोर्टिंग शुरू कर दी। असम में मैंने बच्चियों के माता-पिता, आरएसएस के काडरों और सम्‍बद्ध सरकारी एजेंसियों से बात की ताकि घटना की पुष्टि और तथ्‍यों का मिलान किया जा सके। असम के सरकारी अधिकारियों से मैंने कई सरकारी काग़ज़ात प्राप्‍त किए जिनमें बाल तस्‍करी के आरोपी आरएसएस सम्‍बद्ध संगठनों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई थी। बच्चियों के माता-पिता ने ‘ऑन रिकॉर्ड’ आरएसएस के काडरों पर अपनी बच्चियों के पहचान पत्र और फोटो ले जाने का आरोप लगाया। नतीजतन, उनके पास यह साबित करने का भी कोई तरीका नहीं रह गया कि उनके लड़कियां थीं। लड़कियों को अवैध तरीके से ले जाने में लिप्‍त आरएसएस के काडरों ने मुझे बताया कि उन्‍हें इसलिए ले जाया गया है ताकि उस क्षेत्र में ”हिंदुओं को ईसाई मिशनरियों से बचाया जा सके”। असम में अपना काम समाप्‍त करने के बाद मैं लड़कियों को खोजने के लिए पंजाब और गुजरात गई और मैंने उन्‍हें खोज निकाला।

मैंने पाया कि इन लड़कियों का नाम किसी औपचारिक शिक्षण संस्‍थान में नहीं लिखवाया गया था। इसके बजाय इनहें सवर्ण हिंदुत्‍व विचारधारा का पोषण करने वाले भजन और संस्‍कार सिखाए जा रहे थे। आरएसएस के छात्रावासों में इन लड़कियों और इनकी देखभाल करने वाले लोगों से बात करने पर यह साफ़ हुआ कि नि‍यमित तौर पर आदिवासी लड़कियों को उत्‍तर-पूर्व से यहां केवल इस उद्देश्‍य से ले आया जाता था ताकि उनके भीतर हिंदुत्‍व से जुड़े मूल्‍यों को भरा जा सके और आरएसएस की अगली पीढ़ी के काडर के रूप में इन्‍हें तैयार किया जा सके। मैंने इस श्रृंखला में जो अंतिम लेख लिखा, उसमें आरएसएस के लोगों, माता-पिता, लड़कियों और सरकारी अफसरों के साक्षात्‍कार शामिल थे। उसमें साफ़ तौर से इस घटना की टाइमलाइन बताई गई थी, विभिन्‍न भारतीय और अंतरराष्‍ट्रीय बाल अधिकार कानूनों के उल्‍लंघन का हवाला दिया गया था, घटना से जुड़े सभी सकरारी काग़ज़ात का संदर्भ था जो सार्वजनिक थे और अपराध को साबित किया गया था।

स्‍टोरी प्रकाशित होने के बाद खूब पढ़ी गई और ऑनलाइन माध्‍यम में तो इसकी पठनीयता जबरदस्‍त रही। इसकी प्रतिक्रिया में आरएसएस तथा भारतीय जनता पार्टी के सदस्‍यों व पदाधिकारियों ने प्रकाशित तथ्‍यों को तथ्‍यगत चुनौती देने के बजाय खाली जुमलों के सहारे आरएसएस के संगठनों को पाक-साफ़ ठहराने का प्रयास किया। उन्‍होंने मुझे गालियां दी, मेरे ऊपर कीचड़ उछाला और एक आधिकारिक बयान में तो मेरे ”विकृत दिमाग” का हवाला देते हुए इस स्‍टोरी को करने की मेरी मंशा पर ही सवाल उठा दिए गए। इसके बाद खबर आई कि गुवाहाटी उच्‍च न्‍यायालय के असिस्‍टेंट सॉलिसिटर जनरल और बीजेपी के कुछ सदस्‍यों ने मेरी स्‍टोरी के आखिरी पैराग्राफ का चुनिंदा तरीके से हवाला देते हुए ”समुदायों के बीच सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने” का आरोप लगाते हुए मेरे खिलाफ़ तथा आउटलुक पत्रिका के संपादक और प्रकाशक के खिलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी है।

पत्रकारिता के अपने पिछले 10 साल के करियर में मैंने बाल तस्‍करी को व्‍यापक तरीके से कवर किया है। मैंने 2010 में जब उत्‍तरी दिल्‍ली के कुछ मदरसों से चल रही बाल तस्‍करी के बारे में लिखा था तो यह मेरे लिए और मेरे संपादकों के लिए एक अपराध कथा थी। इसके छपने के बाद 250 से ज्‍यादा बच्‍चों को मुक्‍त कराया गया था। इसी तरह 2011 में मैंने ओडिशा-झारखण्‍ड की सीमा से लगे सारंडा के जंगलों से स्‍टोरी की थी कि कई माओवादी समूह कैसे बच्‍चों के शस्‍त्र प्रशिक्षण शिविर चला रहे थे। इन लेखों को कई राष्‍ट्रीय व अंतरराष्‍ट्रीय पुरस्‍कार हासिल हुए और इन्‍हें लिखने के बाद मुझे किसी ने भी हिंदू कट्टर संघी या अतिराष्‍ट्रवादी या फिर पूंजीवादी ठग नहीं कहा। इन दोनों लेखों और आरएसएस वाले लेख पर आई प्रतिक्रियाओं में दिखा फ़र्क दो ज़रूरी सवाल खड़े करता है- क्‍या पत्रकारीय कर्म सत्‍ता में बैठी राजनीतिक ताकतों की मनमर्जी का मोहताज है? और आखिर राजनीतिक सत्‍ता तंत्र अभिव्‍यक्ति की बुनियादी स्‍वतंत्रता का दमन कर के गैर-जवाबदेह कैसे बना रह सकता है?

स्‍टोरी के छपने और उसके बाद मेरे व आउटलुक के खिलाफ दर्ज केस की खबरें मीडिया में आने के हफ्ते भर के भीतर लड़कियों की तस्‍करी का असली मसला एक रिपोर्टर के बतौर मेरी विश्‍वसनीयता, मेरे चरित्र, स्‍टोरी करने की मेरी ‘मंशा’ और आउटलुक द्वारा इसे प्रकाशित करने के कारणों पर खड़ी हुई बहस के तले दब गया। बहुत जल्‍द ही इसके बाद आउटलुक के संपादक को प्रकाशक ने हटा दिया और इसका सार्वजनिक रूप से कोई कारण बताना उचित नहीं समझा।

बजाय इसके कि मीडिया आरएसएस के काडरों की आपराधिक गतिविधियों का फॉलो-अप करता और दबाव बनाता कि हाशिये के आदिवासी लोगों को अपनी बच्चियां वापस मिल जातीं, हम लोग यानी पत्रकार, संपादक और प्रकाशक खुद ही स्‍टोरी बन गए। यहां तक कि सार्वजनिक विमर्श भी पूरी तरह अभिव्‍यक्ति की आज़ादी के अधिकार पर बहस की ओर मुड़ गया और इसके बहाने बड़ी आसानी से असल अपराध की ओर से पूरी तरह ध्‍यान हट गया।

धमकियां

आरएसएस वाली स्‍टोरी छपने के बाद सोशल मीडिया पर एक तस्‍वीर डाली गई। वह मेरी एक पुरुष के साथ ली हुई सेल्‍फी थी जिसमें दोनों एक आईने के सामने खड़े हैं। इस तस्‍वीर का कैप्‍शन दिया गया- नेहा दीक्षित के कमरे में ये आदमी कौन है? बदले में उसने क्‍या लिया? कोई भी महिला पत्रकार, लेखिका या कलाकार नहीं है जिसे ऑनलाइन उचक्‍कों के ऐसे हमलों का सामना न करना पड़ता हो। अतीत में भी जब मैंने उत्‍तर भारत में इज्‍जत के नाम पर मौत के घाट उतार देने के फ़रमान जारी करने वाली खाप पंचायतों पर स्‍टोरी की थी तो बाकायदे इस बात पर विचार-विमर्श चला था कैसे मुझे मारपीट कर ठीक किया जाए। मैंने जब उत्‍तर भारत में दुल्‍हनों की तस्‍करी पर स्‍टोरी की थी तब मुझे बलात्‍कार की धमकियां मिली थीं जिसमें बाकायदे विवरण देकर बताया गया था कि कैसे कांटेदार डंडे या नुकीले रॉड को मेरे निजी अंगों में डाला जाए। मैंने जब ‘लव-जिहाद’ पर लिखा, तब मुझे ‘लश्‍कर-ए-तैयबा’ का सदस्‍य बताया गया और जब मैंने हिंदुत्‍ववादी राष्‍ट्रवाद पर लिखा, तो मुझे ”राहुल गांधी की रखैल” कहा गया। अकसर भद्दी गालियां और इंसानी गुप्‍तांगों की तस्‍वीरें मेरे इनबॉक्‍स में अब भी भेजी जाती हैं।

इतने बरसों में मैं इन सब से निपटना सीख चुकी हूं। पहले मैं बहस करने लग जाती थी। फिर मैंने बिल्लियों की तस्‍वीरें भेजना शुरू कीं। अब मैं कोई जवाब नहीं देती। ये बात अलग है कि हर सुबह अपने इनबॉक्‍स में सैकड़ों चिढ़ाने वाले और कभी-कभार दिमाग से न उतर पाने संदेशों को देखकर नज़रअंदाज़ करना कठिन हो जाता है। खासकर इसलिए भी क्‍योंकि बिना नाम वाले अज्ञात ट्रोल तत्‍वों पर कोई लगाम नहीं होती और हाल ही में महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी द्वारा शुरू किया गया साइबर सुरक्षा सेल भी किसी काम का नहीं है।

ट्विटर पर 2500 बार शेयर हुई तस्‍वीर मेरी और मेरे साथी की थी। पहली नज़र में तो ऐसी किसी चीज़ पर हंसा ही जा सकता था लेकिन जल्‍द ही मेरी निजी जिंदगी के तमाम विवरण नेट पर फैल गए। मेरे निवास का पता ऑनलाइन डाल दिया गया और साफ़ धमकी दी गई कि मेरे ऊपर हमले की योजना भी बनाई जा रही है। तथ्‍यात्‍मक रूप से पुष्‍ट किसी स्‍टोरी पर यदि ऐसी प्रतिक्रिया आए तो यह किसी भी रिपोर्टर को निराश करने जैसी बात हो सकती है। कई मामलों में रिपोर्टर डर के मारे चुप भी हो जा सकता है। इससे पहले जब कभी मेरे नाम से कोई कानूनी नोटिस आता था, तो मेरे सीनियर कहा करते थे कि यह तो मेरे लिए सम्‍मान की मुहर है और इस बात का सुबूत भी कि स्‍टोरी का असर हुआ है। उस वक्‍त तक कम से कम इतना तो था ही कि सामने वाला यह दिखावा कर रहा होता था कि वह कानून की इज्‍जत करता है। जब अदालत में जाने की बारी आती, तो एक पत्रकार अपनी स्‍टोरी के पक्ष में खड़ा होकर वहां तथ्‍य गिनवा सकता था। अब पैसे लेकर ऑनलाइन तंग करने वाले उचक्‍कों की फौज ने ऐसे कानूनी नोटिस की जगह ले ली है। हर सुबह कुछ स्‍वयंभू बौद्धिक, टिप्‍पणीकार और लेखक सरकार-विरोधी लेखों की पहचान कर के उन पर टिप्‍पणी कर देते हैं। इन सबके फॉलोवर्स की लंबी-चौड़ी फौज होती है। कुछ की तो कई हज़ार में। फिर शुरू होता है सिलसिला उन लेखों के लेखकों को ऑनलाइन प्रताडि़त करने का, जिन्‍होंने सत्‍ता प्रतिष्‍ठान की गलतियों पर लिखने का दुस्‍साहस किया।

लेखक अगर महिला हो तो उचक्‍कों का काम आसान हो जाता है। सबसे आसान यह है कि उसकी मंशा, बौद्धिकता या चरित्र पर हमला बोल दो। इस तरह वे न केवल लेखक को हतोत्‍साहित करते हैं जो परेशान होकर खुद पर ही बंदिशें लगा बैठता है, बल्कि सार्वजनिक विमर्श को बौर्द्धिक या विधिक तर्क से दूर ले जाकर भेडि़याधसान में तब्‍दील कर देते हैं जहां न्‍याय देने का काम भीड़ के हाथ में सौंप दिया जाता है। सोशल स्‍पेस में जाहिर की गई किसी भी असहमति को दो पाले में बांट कर गाली-गलौज के स्‍तर तक गिरा दिया जाता है। इस स्‍पेस में सभी प्रगतिशील, सेकुलर उदारपंथी या तो ”राष्‍ट्रविरोधी” या फिर ”कौमी-नक्‍सल” हैं जबकि दक्षिणपंथी राजनीतिक झुकाव वाले सारे लोग ”संघी” या ”भक्‍त” हैं। ऐसी स्‍वतंत्र जगहों को लगातार खत्‍म किया जा रहा है जहां इस तरह की उपमाएं और ठप्‍पे न लगाए जाते हों और जहां विविध राजनीतिक व बौद्धिक झुकाव के लोग साथ आकर बात करने, बहस करने, तर्क-वितर्क करने और अपनी बात रख पाने में समर्थ हों। ”लोकतांत्रिक” सरकारें ऐसी स्थिति से सबसे ज्‍यादा खुश हैं।

एक स्‍टोरी की हत्‍या

मार्च 2016 में एडिटर्स गिल्‍ड ऑफ इंडिया का एक दल छत्‍तीसगढ़ के संकटग्रस्‍त क्षेत्रों के दौरे पर गया था जहां उसने रायपुर समेत बस्‍तर के जगदलपुर की यात्रा की। उनका कहना था कि ”राज्‍य प्रशासन, खास तौर से पुलिस की ओर से पत्रकारों पर दबाव है कि वे उनके मन मुताबिक लिखें और ऐसी रिपोर्टें न प्रकाशित करें जिन्‍हें प्रशासन अपने खिलाफ़ मानता हो। उस इलाके में काम कर रहे पत्रकारों पर माओवादियों का भी दबाव है। ऐसी आम धारणा है कि हर एक पत्रकार पर सरकार की निगाह है और उनकी हर गतिविधि की सरकार जासूसी करवाती है।” कुछ इसी तरह कश्‍मीर में भी मानवाधिकार के उल्‍लंघन पर रिपोर्ट करने वाले कई पत्रकारों पर सुरक्षाबलों का हमला हो चुका है।

कमिटी टु प्रोटेक्‍ट जर्नलिस्‍ट्स की 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1992 से लेकर अब तक 27 भारतीय पत्रकारों की हत्‍या हो चुकी है और बीते 10 साल में ऐसे केवल एक मामले में दोषी को सज़ा सुनाई गई है। इनमें से अधिकतर पत्रकार छोटे शहरों-कस्‍बों से आते हैं जो अकसर खबर के हिसाब से अनुबंध पर काम करते हैं। मुख्‍यधारा का मीडिया बिना किसी औपचारिक कानूनी अनुबंध के ऐसी खबरों को करने की उन्‍हें मंजूरी देता है जहां पारिश्रमिक से लेकर हादसे में मुआवजे या जीवन बीमा इत्‍यादि का कोई प्रावधान नहीं होता और यहां तक कि बुनियादी कानूनी मदद तक उन्‍हें नहीं दी जाती। इस वजह से ये स्‍वतंत्र पत्रकार सबसे ज्‍यादा अरक्षित स्थिति में आ जाते हैं। इसके अलावा मीडिया केंद्रित संगठनों, यूनियनों और संस्‍थागत सहयोग के अभाव में सर्वाधिक अनुकूल हालात के रहते हुए भी अभिव्‍यक्ति की आज़ादी जैसे अधिकारों की पुष्टि करने के लिए पर्याप्‍त संस्‍थागत समर्थन हासिल नहीं हो पाता है। यह स्थिति ऐसे में और चिंताजनक हो जाती है जब नेता और कॉरपोरेट की मिलीभगत से समाचार तय हो रहे हों और अकसर या तो स्‍टोरी की हत्‍या कर दी जाती हो या फिर मौखिक रूप से ही पत्रकारों को धमकाया जा रहा हो और कभी-कभार उनके ऊपर जानलेवा हमले किए जा रहे हों।

कॉरपोरेट-राजनीतिक गठजोड़

अभिव्‍यक्ति की आज़ादी का सवाल मेरे ”ऑपरेशन बेबीलिफ्ट” जैसे विशिष्‍ट मामले से कहीं ज्‍यादा व्‍यापक मायने रखता है। यह सवाल स्‍थापित मीडिया प्रतिष्‍ठानों में ऊंचे पदों पर बैठे उन लोगों तक भी जाता है जो उच्‍च-वर्गीय सुविधाओं में आकंठ डूबे हुए कॉरपोरेट-नियंत्रित विज्ञापन तंत्र की मजबूरियों के तले उन समाचारों से खिलवाड़ करते हैं जिन्‍हें आम लोग सुनते, देखते और पढ़ते हैं।

एक बार की बात है जब 2012 में मैं जिस समाचार चैनल में काम कर रही थी, वहां संपादकीय टीम के करीब 70 लोगों को स्‍टूडियो में आने को कहा गया। चैनल के कार्यकारी संपादक ने हम सब को बताया कि इस कंपनी में एक बड़े कारोबारी प्रतिष्‍ठान द्वारा हिस्‍सेदारी खरीद लिए जाने के बाद चैनल के लिए नई मार्केटिंग रणनीति तैयार की गई है। पौन घंटे चली बातचीत में हमें समझाया गया कि अब से हमारी टारगेट ऑडिएंस यानी लक्षित दर्शक ”शहरी अमीर” तबका होगा। हमें बताया गया कि हर बार जब हम स्‍टोरी करें या स्क्रिप्‍ट लिखें या शो की हेडलाइन लगाएं या नया कार्यक्रम बनाएं, तो ऐसा करते वक्‍त हमें दिमाग में ”35 साल के उस टेकी (प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम करने वाले) युवा को ध्‍यान में रखना होगा जो बंगलुरु में बैठा है।” हमें परदे के पीछे की ज़मीनी रिपोर्टों से दूर रहने की हिदायत दी गई। हमसे कहा गया कि भीतरी इलाकों की दिल दहलाने वाली दुखांत कथाओं की जगह हमें युवा और शहरी अमीरों के लिए लाइफस्‍टाइल की खबरें करनी हैं। हमें ऐसी खबरें करनी हैं, मसलन ”आइपीएल की पार्टियों में ड्रग्‍स कहां से आते हैं” और ”दक्षिणी दिल्‍ली में तेज़ कार चलाने वाले रईसज़ादे कौन हैं”।

ये निर्देश सुनकर कुछ रिपोर्टरों के चेहरे लटक गए। इसे देखते हुए संपादक ने उन्‍हें ”सांत्‍वना” देते हुए कहा कि हर पांच शहरी रिपोर्टों के बदले में वे एक ”बैक ऑफ दि बियॉन्‍ड” यानी गरीब-गुरबों की स्‍टोरी कर सकते हैं, वो भी तब जब उन्‍हें वास्‍तव में ऐसा करना ज़रूरी लगता हो। वे इतनी ही ”छूट” देने को तैयार थे। इस बैठक के अंत में संपादक ने हमसे पूछा कि क्‍या हमारे पास कोई सवाल हैं। मैंने पूछा कि क्‍या लक्षित दर्शक में ”महिलाएं” भी होंगी। संपादक ने सपाट भंगिमा बनाते हुए जवाब दिया कि ”वैज्ञानिक शोध” कहता है कि महिलाएं टीवी पर समाचार नहीं देखती हैं इसलिए जहां तक चैनल का सवाल है, उसमें ”महिलाएं” कहीं नहीं हैं। जैसे कि इतना ही कहना काफी नहीं था, जब एक प्रोड्यूसर ने पूछा कि ”फिर हमारे यहां महिला न्‍यूज़ एंकर क्‍यों होती हैं”, संपादक ने जवाब दिया कि हम जिस काल्‍पनिक 35 वर्षीय युवा के लिए खबरें दिखाएंगे, उसके लिहाज से वे ज़रूरी हैं क्‍योंकि वह उसे देखना पसंद करेगा।

आम धारणा यह है कि मीडिया अभिव्‍यक्ति की आज़ादी का एक प्रतीक है। मैं एक भी ऐसे पत्रकार को नहीं जानती जिसे कभी यह तजुर्बा न हुआ हो कि वह किसी भीड़ के बीच गया हो और लोगों ने उससे पूछा न हो कि ”आप हमारे इलाके में नाली की समस्‍या के बारे में क्‍यों नहीं लिखते” या फिर कोई युवाओं की बेरोज़गारी के बारे में क्‍यों नहीं लिख रहा या फिर सरकारी विभागों में पेंशन देने में हो रही गड़बड़ी पर कोई बात क्‍यों नहीं हो रही? जनता से जुड़े ऐसे मुद्दे सनसनीखेज नहीं होते लेकिन यही वास्‍तविक समस्‍याएं हैं। लोगों के ऐसे सवालों पर कोई क्‍या जवाब दे? क्‍या यह कहा जाए कि इन मसलों का ”शहरी अमीरों” से कोई लेना-देना नहीं है? बिलकुल यही वजह है कि दिसंबर 2012 में उठा बलात्‍कार-विरोधी आंदोलन मीडिया में इतनी कवरेज पा गया क्‍योंकि वह शहरी केंद्रों में सिमटा हुआ था। इसी कवरेज के चलते आखिरकार बलात्‍कार कानून में संशोधन हो सका क्‍योंकि इस पर बहस हुई और फॉलो-अप हुआ। आधे-आधे घंटे तक महिला सुरक्षा पर अजीब किस्‍म के न्‍यूज़-प्रोग्राम चलाए गए जिनमें आत्‍मरक्षा की क्‍लासें, नए मोबाइल ऐप और महिलाओं के लिए बंदूक के लाइसेंस हासिल की प्रक्रिया करने जैसी बातें शामिल थीं।

इन्‍हीं चैनलों को हालांकि सितंबर 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान हुए सामूहिक बलात्‍कारों के बारे में ख़बर दिखाने या उन पर बहस करवाने का वक्‍त और स्‍पेस नहीं मिला जबकि वहां सौ से ज्‍यादा औरतों का बलात्‍कार हुआ था जिनमें से केवल सात औरतें सामने आकर अदालत में केस लड़ने का साहस जुटा पाई थीं। ये सभी औरतें मुसलमान थीं, निचली जाति से आती थीं, भूमिहीन थीं और मजदूर पृष्‍ठभूमि की थीं। बावजूद इसके इन्‍होंने अपने बलात्‍कारियों के पड़ोस में रहते हुए उनके खिलाफ़ मुकदमे दर्ज करवाए। पिछले तीन साल के दौरान उन्‍हें दोषियों से मिली धमकियों को झेलना पड़ा है, केस वापस लेने के लिए पुलिस का दबाव झेलना पड़ा है और अपने ही समुदाय के भीतर सामाजिक कलंक का वे शिकार हुई हैं। मौलवियों ने उनसे आग्रह किया कि वे ”बिरादरी की इज्‍जत” का ख़याल रखते हुए बलात्‍कार के ये मुकदमे लड़ना छोड़ दें। इनमें से एक महिला के साथ जब बलात्‍कार हुआ था उस वक्‍त वह गर्भवती थी। उसे भीतर इतने गहरे ज़ख्‍म आए थे कि बाद तक वह इससे उबर नहीं सकी और अगस्‍त 2016 में प्रसव के दौरान उसकी मौत हो गई। एक भी मीडिया संस्‍थान ऐसा नहीं था जिसे लगा हो कि इस ख़बर को कवर किया जा सकता है और मीडिया का मक्‍का व दुनिया के सबसे सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी दिल्‍ली से महज तीन घंटे दूर स्थित घटनास्‍थल पर किसी रिपोर्टर को भेजा जा सकता है।

बलात्‍कार कानून में 2013 में जो संशोधन हुआ था, उसमें पहली बार दंगों के दौरान हुई यौन हिंसा को मान्‍यता देते हुए एक प्रावधान डाला गया है। इस प्रावधान के तहत इन सात महिलाओं के मुकदमे भारत के इतिहास में एक नज़ीर हैं, लेकिन प्रतिरोध की जीती-जागती मिसाल ये औरतें केवल अपने वर्ग और जातिगत पृष्‍ठभूमि के चलते मुख्‍यधारा की ओर से पर्याप्‍त समर्थन व ध्‍यानाकर्षण नहीं जुटा पाईं। उनका उच्‍चारण साफ़ नहीं है, वे अंग्रेज़ी नहीं बोल सकतीं, उनके खिलाफ हुए अपराध की प्रकृति राजनीतिक और सांप्रदायिक है- यही वजह थी कि एक संपादक ने मुझसे कहा, ”दे डू नॉट मेक फॉर गुड टीवी” (इनकी कहानी टीवी के लायक नहीं है)।

‘अदृश्‍य’ षडयंत्र

दि हूट पर 2013 में प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है कि मुख्‍यधारा के भारतीय मीडिया में केवल 21 दलित पत्रकार हैं जिनकी पहचान स्‍पष्‍ट है। इसी तरह आदिवासी पत्रकार अकसर ऐसे छुपे हुए स्ट्रिंगरों के बतौर खप जाते हैं जिनका काम राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय पत्रकारों के लिए स्‍थानीय खबरों के ”फिक्‍सर” की भूमिका निभाने तक सीमित होता है। एक भी ऐसा विस्‍तृत अध्‍ययन नहीं मौजूद है जो मीडिया के भीतर मौजूद सामाजिक भेदभाव को पहवान सके। अधिकतर महिला पत्रकार भी मझोले या निचले स्‍तरों पर ही फंसी रह जाती हैं। इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं है कि एक ओर कॉरपोरेट मार्केटिंग का ढांचा इन्‍हें ज़मीनी मुद्दों को कवर करने से दूर रखता है, तो दूसरी ओर निर्णय लेने वाले पदों पर समाज के विविध तबकों की ओर से प्रतिनिधित्‍व का अभाव मुख्‍यधारा के मीडिया को हाशिये की जनता को प्रभावित करने वाली घटनाओं के प्रति और ज्‍यादा संवेदनहीन बनाने का काम करता है। अगस्‍त 2016 में गुजरात के ऊना में दलित उत्‍पीड़न के खिलाफ हुई करीब 5000 लोगों की रैली को मीडिया में बमुश्किल ही कवरेज हासिल हो सकी। ऐसा इसके बावजूद है कि भारत की आबादी में दलित करीब 25 फीसदी हिस्‍सेदारी रखते हैं। यह 2011 की जनगणना का आंकड़ा है। इसी तरह 2 सितंबर 2016 को 15 करोड़ मजदूरों की दिन भर की हड़ताल को प्रमुख समाचार संस्‍थानों में बमुश्किल ही जगह मिल सकी जबकि इतनी बड़ी संख्‍या अमेरिका की करीब आधी आबादी के बराबर है। हड़ताल का जि़क्र जहां कहीं भी हुआ, उन अधिकतर लेखों में इस बात की चिंता थी कि हड़ताल से होने वाली ”दिक्‍कतों” से कैसे बचा जाए। ज़ाहिर तौर पर यह कंटेंट शहरी उच्‍चवर्गीय या मध्‍यवर्गीय दर्शक के हिसाब से बनाया गया था जो विज्ञापन व मार्केटिंग उद्योग द्वारा लक्षित ”उपभोक्‍ता” होने की ताकत रखता है।

मैंने 2012 में अपने संपादक से अनुरोध किया था कि वे मुझे माओवादियों की पीपुल्‍स लिबरेशन गुरिल्‍ला आर्मी की सालगिरह समारोह को कवर करने की अनुमति दें, जहां हज़ारों काडरों को आना था जिनमें तमाम आदिवासी औरतें भी मौजूद रहतीं। मेरे संपादक ने छूटते ही बड़े आराम से जवाब दिया, ”हम लोगों को सुरक्षा एजेंसियों को सूचना दे देनी चाहिए कि हज़ारों राष्‍ट्रविरोधी लोग एक जगह इकट्ठा हो रहे हैं।” मैंने चुपचाप अपना प्रस्‍ताव वापस ले लिया। जब संपादक ही कट्टर राष्‍ट्रवाद के चीयरलीडरों जैसा बरताव करने लगे, बहुस्‍तरीय जन आंदोलनों का दुई में सरलीकरण कर डाले और खुद ही जज व जूरी बन बैठे, तब वह अपने जातिगत, लैंगिक या वर्गीय पूर्वाग्रहों पर सवाल खड़ा करने की स्‍पेस नहीं छोड़ता। यदि बहस करने, असहमत होने और हाशिये के लोगों के संघर्षों को समझने की मंशा इतनी ही कम है, तो सवाल उठता है कि फिर मीडिया अभिव्‍यक्ति की आज़ादी के नाम पर आखिर किसका झंडा ढो रहा है?


 

(नेहा दीक्षित दिल्‍ली की एक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं। वे दक्षिण एशिया में राजनीति, जेंडर और सामाजिक न्‍याय पर लिखती हैं। यह लेख 21 अक्‍टूबर को हिमाल साउथ एशियन में प्रकाशित हुआ था और वहीं से साभार यहां प्रकाशित है। इसका अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है। तस्‍वीर हिमाल पत्रिका में छपे मूल लेख से साभार है।)